नलखेडा। हिंदू धर्म में पूर्वजों के लिए पितृपक्ष (श्राद्ध) के 16 दिन प्रतिवर्ष आते है। इन दिनो में सभी घरो में अपने पितरो को उनकी अवसान (मृत्यु) तिथि के दिन खीर पूडी का भोग लगा कर शेष भोग को कौओं के लिए अपने घरो की छतों पर रख दिया जाता है। जिसे कौआ यदि ग्रहण कर लेता है तो यह माना जाता है कि पितरो ने भोजन ग्रहण कर लिया है। लेकिन विगत कई वर्षाें से नगर सहित पूरे क्षेत्र में इस पक्षी का नजर आना काफी दुर्लभ हो गया है।
आमतौर पर कौआ एक उपेक्षित पक्षी माना जाता है, लेकिन पितृ पक्ष के आते हैं इसके भाग्य खुल जाते हैं और अचानक इस की पूछ परख बढ़ जाती है। इस बार पितृ पक्ष में जब कौओं को पूजने की बारी आई तो पता लगा कि इनकी संख्या पहले जैसी नहीं रही।
पितृ पक्ष पर लोग अपने घरों पर भोजन के लिए कौओं को आवाज दे रहे हैं लेकिन कौओं का अता-पता नहीं है। कौओं की तादाद अब कम हो चली है। पर्यावरण से जुड़े लोग इसके लिए मानव की आदतों को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग कौओं की संख्या कम करने का कारण बनता जा रहा है। पहले जहां सैकड़ों कौओं को एक साथ आकाश में विचरण करते हुए देखा जा सकता था। वहीं अब इनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है।
सफाई दरोगा भी है कौआ
कौआ बेकार चीजों और मृत कीडे मकोडे आदि को खाता है। कौए को इसके इसी गुण के चलते सफाई दरोगा कहा गया है। हर बात पर यह पक्षी मनुष्य पर ही निर्भर होता है, इसलिए इसकी संख्या कम हो रही है तो इसके लिए जिम्मेदारी भी वही होगा।
कौआ मनुष्यो का एक ऐसा दोस्त है जिसका काम कोई दूसरा नहीं कर सकता। कौआ कीड़ों को खाता है, गंदगी को साफ करता है, चूहों से लेकर हर हानिकारक चीजों को चट कर जाता है, इसलिए कौव ेमहत्वपूर्ण हो जाते है। कौवे को हमेशा से घृणा का पात्र माना गया है लेकिन वह ऐसा पक्षी नहीं है।
कवियों ने की कौवे के गुणों की तारीफ
कवियो व लेखको ने इसके अन्य गुणों की तारीफ की है। पंजाबी लोक गाथाओं में ‘उड़ जा काले कावां तेरे मुंह विच खंड पावां‘ के माध्यम से कौए को घर-घर तक पहुंचाया गया तो तुलसीदास ने भी कौए को लेकर कहा कि ‘वायस पालिय अति अनुरागा, होहि निरामिष कबहुं कागा।‘ रसखान ने भी कौए की महिमा का बखान करते हुए उसे भगवान कृष्ण के के हाथ से रोटी छीनने के कारण बड़भागी कहा है।